भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं 'आत्मा अजर, अमर है. आत्मा का नाश नहीं हो सकता. आत्मा केवल युगों-युगों तक शरीर बदलती है.' आत्मा का देह त्याग करने के बाद भौतिक जीवन में बहुत-से संस्कार किए जाते हैं.
हिन्दू धर्मं में मुख्य १६ संस्कार बनाये गए है जिनमे पहला संस्कार गर्भाधान एवं अंतिम संस्कार अंत्येष्टि है ,अंतिम संस्कार के साथ कपाल क्रिया ,पिंडदान आदि किया जाता है .
दशकों पहले केवल गरीब ब्राह्मणों तथा विद्वानों को भोज करवाया जाता था लेकिन बदलते समय में समाज के साथ जुड़ाव या लोक-लज्जा के कारण भी लोग मृत्युभोज का आयोजन करते हैं.
धार्मिक दृषिटकोण से मृत्यु भोज का परित्याग पश्चात भौतिक दृष्टि से देखा जाए तो अनावश्यक एवं निराधार, अकारण ही मृतक परिवार को आर्थिक हानि होती है जिसे क़तई उचित नहीं कहा जा सकता। ऐसे आयोजनो में किसी प्रकार का नशा भी सेवन नही करना चाहिए। आदर्श परम्परा के दृषिटकोण से यदि इतिहास की ओर नजर दौडाइ जाए तो भगवान श्रीरामजी के पिता अयोध्या के महाराजा श्री दशरथजी के देहान्त पर मृत्युभोज का आयोजन तो दूर रहा, पूरी अयोध्या में किसी के घर भोजन नहीं बना, सभी ने उपवास किया और श्रीरामजी जो मर्यादा पुरूषोतम राम कहलाते है, उन्हें मृत्यु की सूचना मिलने पर उन्होनें कन्दमूल जैसे साधारण भोजन के साथ 12 दिन का शोक जंगल में मनाया।
महाभारत युद्ध होने का था, अतः श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जा कर युद्ध न करने के लिए संधि करने का आग्रह किया, तो दुर्योधन द्वारा आग्रह ठुकराए जाने पर श्री कृष्ण को कष्ट हुआ और वह चल पड़े, तो दुर्योधन द्वारा श्री कृष्ण से भोजन करने के आग्रह पर कहा कि''सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः''हे दुयोंधन - जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए। लेकिन जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के दिल में दर्द हो, वेदना हो।तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए।
इस प्रकार जब सत्रहवाँ संस्कार बनाया ही नहीं गया तो सत्रहवाँ संस्कार तेरहवीं संस्कार कहाँ से आ टपका???? इससे साबित होता है कि तेरहवी संस्कार समाज के चन्द चालाक लोगों के दिमाग की उपज है।
किसी भी धर्म ग्रन्थ में मृत्युभोज का विधान नहीं है।बल्कि महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है। लेकिन जिसने जीवन पर्यन्त मृत्युभोज खाया हो, उसका तो ईश्वर ही मालिक है।
इसीलिए महार्षि दयानन्द सरस्वती,, पं0 श्रीराम शर्मा, स्वामी विवेकानन्द जैसे महान मनीषियों ने मृत्युभोज का जोरदार ढंग से विरोध किया है।
मेरे समाज के लोगों! जरा सोचो!.....
क्या हम में पशु-पक्षियों के बराबर भी संवेदनशीलता नहीं है ? कुतिया का बच्चा मर जाए तो कुतिया रोटी खाना छोड़ देगी। भैंस अथवा गाय का बछड़ा मर जाए तो घास खाना छोड देगी।
आज फिर हम सभी को अपने विवेक और बुद्धि से इस सामाजिक कुरीति से अपने आप को स्वतंत्र कराना है ,समाज में व्याप्त मृत्युभोज के अंधविश्वास के कारण बहुत सारे परिवार आर्थिक बोझ के कारन संकट में आ जाते है एवं अनायास ही कर्ज में डूब जाते है जिसमे से उन्हें निकलने में कई साल लग जाते है .
जागो है भारतवासी ,,,,,समाज के चन्द चालाक लोगों के दिमाग की उपज इस मृत्युभोज को हमें आज से ही बंद करने की प्रतिज्ञा लेनी है और इस कुरीति को समाप्त करना है ,एवं दुःख की इस प्रकार की घडी में हमें मृतक परिवार को हर तरह की सहायता एवं सहयोग करना चाहिए....
मृत्युभोज -एक कुरीति !!!